ज़िन्दगी की उलझन
अब तो उलझन है
मर मर के जी रहा हूँ या बन गया| गया कोई बिन आत्मा लाश हूँ !
मुझ से न उलझ मेरे यार आज मैं उलझन में हूँ !
समझने लगा हूँ या अभी थोड़ी नादानी बाकी है
बेखबर हूँ अपने आप से मगर लगता है अब सुलझन में हूँ |
कामना
कामना है…
अबकी बार हो जाये ईमान की बरसात
अपने ही अपनों के ज़मीर पर धूल की परत है
ख़ामोशी
वो जो समझते रहे तामाशा होगा !
मेरी चुप्पी ने बाजी ही पलट दी
इश्क़
इश्क़ वो जूनून है जो कभी खत्म नहीं होती सिर्फ बढ़ती है...
या तो सुकून बनके या पीर बनके
किस्सा-ए-ज़िन्दगी
ज़िन्दगी का किस्सा भी कितना विचित्र है!
निशा काल व्यतीत नहीं होता और
उम्र के साल घटते चले जा रहे है !
(एक सोच )
(एक सोच )
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