Sunday, September 17, 2017

shayri on life

ज़िन्दगी की उलझन 


अब  तो उलझन है
मर मर के जी रहा हूँ या बन गया| गया कोई बिन आत्मा लाश  हूँ !
मुझ से न उलझ मेरे यार आज मैं उलझन में हूँ !
समझने लगा  हूँ या अभी  थोड़ी  नादानी बाकी है
बेखबर हूँ अपने आप से मगर लगता है अब सुलझन में हूँ |

कामना 


कामना  है…
अबकी  बार हो जाये ईमान की बरसात
अपने ही अपनों  के ज़मीर पर धूल की परत  है

ख़ामोशी 


वो जो  समझते रहे तामाशा होगा !
मेरी चुप्पी ने  बाजी ही पलट दी

इश्क़ 



इश्क़ वो जूनून है जो कभी खत्म नहीं होती सिर्फ बढ़ती है...
 या तो सुकून बनके  या पीर बनके

किस्सा-ए-ज़िन्दगी


ज़िन्दगी का किस्सा भी कितना विचित्र है!
निशा काल व्यतीत नहीं होता और
उम्र के साल घटते  चले जा रहे है !


                                      (एक सोच )

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